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Jagatguru Kaministacharya Prayagpeethadheeshwar
Publisher:
VANI
| Author:
Kirtikumar Singh
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Category: Hindi
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यह उपन्यास समकालीन हिन्दी साहित्य-जगत् की असाधारण घटना है। हर वर्ग एवं समाज को अपनी लेखनी की नोक पर रखने वाला रचनाकार किस प्रकार पतित होकर घृणास्पद स्थिति तक पहुँच गया है और सैद्धान्तिकता का लबादा ओढ़कर वह कैसी-कैसी नाटकबाज़ी करता है, इसकी बानगी इस उपन्यास में दिखाई देती है। इसमें रचनाकारों की मनःस्थिति का वर्णन है। सच और ज्ञान का दम्भ भरने वाला रचनाकार अन्दर से खोखला है और अपने इस खोखलेपन को ढंकने के लिए उसने साहित्य जगत् में अनेक टापुओं का निर्माण कर रखा है। ऐसा नहीं है कि वह सच नहीं जानता है लेकिन किसी में भी अपनी साहित्य बिरादरी का सच उजागर करने का माद्दा नहीं है। यह वही कर सकता है जो ‘सीकरी’ को ‘पनहीं’ से अधिक महत्त्व न दे। अन्यथा पुरस्कार, यशोकांक्षा, गुटबाज़ी में यह वर्ग इतना अधिक जकड़ गया है कि वह इन्हीं पतनोन्मुख मनोवृत्तियों का क्रीतदास हो गया है। लोगों के बीच विद्वत्ता एवं नैतिकता का लबादा ओढ़े यह साहित्यकार कितना अधिक नीचे गिर सकता है, इसे इलाहाबादी साहित्यिक परिवेश के दृष्टान्त द्वारा प्रस्तुत किया गया है। साहित्यकारों के आन्तरिक खोखलेपन पर यह दाहक टिप्पणी है। इक्कीसवीं सदी में तमाम उपन्यासकारों ने विविध विषयों पर उपन्यास लिखे लेकिन यह पक्ष छूटा दिखाई देता है। निश्चित रूप से कीर्तिकुमार सिंह का यह उपन्यास इस रिक्त स्थान की पूर्ति है।
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यह उपन्यास समकालीन हिन्दी साहित्य-जगत् की असाधारण घटना है। हर वर्ग एवं समाज को अपनी लेखनी की नोक पर रखने वाला रचनाकार किस प्रकार पतित होकर घृणास्पद स्थिति तक पहुँच गया है और सैद्धान्तिकता का लबादा ओढ़कर वह कैसी-कैसी नाटकबाज़ी करता है, इसकी बानगी इस उपन्यास में दिखाई देती है। इसमें रचनाकारों की मनःस्थिति का वर्णन है। सच और ज्ञान का दम्भ भरने वाला रचनाकार अन्दर से खोखला है और अपने इस खोखलेपन को ढंकने के लिए उसने साहित्य जगत् में अनेक टापुओं का निर्माण कर रखा है। ऐसा नहीं है कि वह सच नहीं जानता है लेकिन किसी में भी अपनी साहित्य बिरादरी का सच उजागर करने का माद्दा नहीं है। यह वही कर सकता है जो ‘सीकरी’ को ‘पनहीं’ से अधिक महत्त्व न दे। अन्यथा पुरस्कार, यशोकांक्षा, गुटबाज़ी में यह वर्ग इतना अधिक जकड़ गया है कि वह इन्हीं पतनोन्मुख मनोवृत्तियों का क्रीतदास हो गया है। लोगों के बीच विद्वत्ता एवं नैतिकता का लबादा ओढ़े यह साहित्यकार कितना अधिक नीचे गिर सकता है, इसे इलाहाबादी साहित्यिक परिवेश के दृष्टान्त द्वारा प्रस्तुत किया गया है। साहित्यकारों के आन्तरिक खोखलेपन पर यह दाहक टिप्पणी है। इक्कीसवीं सदी में तमाम उपन्यासकारों ने विविध विषयों पर उपन्यास लिखे लेकिन यह पक्ष छूटा दिखाई देता है। निश्चित रूप से कीर्तिकुमार सिंह का यह उपन्यास इस रिक्त स्थान की पूर्ति है।
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